शक्तिपात दिक्षा किसी बाहरी व्यक्ति को देने की जोखिम वो कभी नहीं लेते हैं।
जब कोई गृहस्थ में रहकर भी एक साधु से भी आगे बढकर धर्म के उत्थान में निरंतर लग जाता है,लाखों रुपया पब्लिक से धर्म के लिए खर्च करवाने में सफल हो जाता है।
तब वह साधु समाज की नजर में आ ही जाता है, तब कहीं जाकर प्रारब्ध जागने की बात संभव हो जाए और शक्तिपात दिक्षा हो जाए तो यह होना परमात्मा की कृपा ही कहा जाएगा।
बाकी तो गली गली में आज कुण्डलिनी शक्ति के सिद्ध बैठे हैं।
किसी से भी बात कर लीजिए सब यही कहते नजर आएंगे कि उसने तो बचपन में ही जगा ली थी, कुछ पैदायशी जागे हुए हैं।
जिस दिन शक्तिपात के बाद मौत आएगी तब पता चलेगा की कुण्डलिनी शक्ति का जगाना क्या है?
लौटना हो गया और जान बच गई तो स्मृति खोकर हनुमान जी के जैसा सब जब भूलकर बैठोगे तब पता चलेगा कुण्डलिनी शक्ति जगाना क्या कीमत चुकता करवाता है।
जब नाडियों से प्राण निकलता है,फांसी पर झूलना जानबूझकर कौन करता है भाई?
परमात्मा को पाने की चाह में जो मिटना करते हैं वो जान पाते हैं कि ये संसार किस तरह की भूल भुलैया में उलझा कई जन्मों से भटकता ही जा रहा है और जिसका अंत भी नहीं है।
हनुमान जी ने सूर्य को निगल लिया है।
सूर्य को निगलना ऊर्जा रूप में महाप्राण को भीतर लेना है, राम को भीतर लेना है और जो राम को भीतर लेना करता है वह कोई भक्त ही हो सकता है।
भक्त और विभक्त गति है योग की।
भक्त होना जुड जाना है भगवान से।
योग की अपनी गति है,यही भक्ति है कि आकाश से पाताल तक गंगा का ही विस्तार है जो साधक के नीचे से ऊपर तक आरपार होकर निकल जाती है एक माला में मोती जैसा पिरोकर एक सिद्ध योगी अपनी गुरु परंपरा का निर्वहन व धर्म का धारण करना करता है।
दुनियां उस जागे हुए का फैसला सबसे पहले कर देने में लग जाती है कि जागे हुए व्यक्ति को सोया हुआ संसार कभी बर्दाश्त नहीं करता।
लेकिन जिस पर राम की कृपा हो गई तो हो गई फिर संसार कुछ कर भी तो नहीं सकता।
पात्रता जब हो जाती है तो प्राप्ति सुनिश्चित है।
कुण्डलिनी जगाने के लिए भटकना नहीं पडता।
गुरु खुद चलकर आ जाते हैं शिष्य के पास।
विश्वास यदि स्वयं पर है, कर्म पर है , परमात्मा पर पूर्ण विश्वास है तो जीवन में क्या संभव नहीं।
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पडता है।
छोडना भी नहीं चाहते ऐसा कस कर पकडे हैं और पाना भी चाहते हैं।
परमात्मा भी चाहिए और माया भी चाहिए।
बात मुक्ति की करते हैं और समेटकर सब नीचे ऐसा दबा रखा है कि अगले जन्म में कुण्डलिनी की जगह कुण्डली मारकर बैठा सर्प तक बन जाने की ठान ली है जो विष से भरा हुआ जीव है जो काटने के सिवाय और कुछ करने लायक नहीं है।
माया तो माया है,ऐसे थोडा ही छूटती है।
और बिना छूटे परमात्मा कहां से मिलेगा।
खुद को मिटाना पडता है, जब मैं मरता है तब माँ मिलती है।
हर हर गंगे करते रहो फिर, कौन सुनने वाला है?
भागीरथ ने गंगा को धारण किया स्वयं की मुक्ति के साथ पितरों की मुक्ति संभव हुई।
गंगा शांतनु को मिलती है,गंगा भीष्म पैदा कर देती है।
गंगा लौटकर चली जाती है और गंगा ही लौटकर भी आती है।
लिंग रूप में आरपार ब्रम्हांड को धारण किये गंगा शिव का स्वरूप प्रकट करती है।
बिना गंगा के शिव शव है।
गंगा तो गंगा है।
माँ और मैं
.... और कुछ नहीं इस संसार में।
ऊँ माँ
🙏🙏🙏